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रहस्यवादी कवि संत कबीर | Mystic poet Sant Kabir


✍चित्रांश प्रितेन्द्र कायस्थ - विभूति फीचर्स


संत कवियों में महात्मा कबीर का स्थान सबसे ऊंचा है। निर्गुण धारा की ज्ञान मार्गी शाखा के सबसे बडे कवि कबीर दास हैं। कबीर की वाणी में सच्चे हृदय से कही हुई बातें हैं, जो दिल में घर कर लेती है। ठीक निशाने पर चोट करने की कला में कबीर अद्वितीय है।

महात्मा कबीरदास की जन्मतिथि, माता-पिता जाति धर्म आदि के बारे में स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। 'भक्त सिन्धु' के अनुसार उनका जन्म सं. 1451, कबीर कसौटी के अनुसार सं. 1455 कबीर एण्ड दी कबीर पन्थ के अनुसार सं. 1457 माना गया है। पीताम्बर दत्त बडख़ात के अनुसार वि. सं. 1427-1507 उनका जीवनकाल है। (सन् 1370-1450ई.) यहीं क्षितिमोहन सेन और परशुराम चतुर्वेदी का मानना भी यही है। चन्द्रावली पांडेय के अनुसार सं. 1456-1552 (सन् 1300-1405 ई) है। मिश्र बन्धु, अयोध्या सिंह उपाध्याय और रामकुमार वर्मा का भी कुछ ऐसा ही कहना है।

श्याम सुन्दर दास के अनुसार सं. 1456-1567 (सन् 1399-1510ई.)। यद्यपि अधिकांश विद्वानों का झुकाव इस अंतिम मत की ओर है पर यह किसी दृढ़ आधार पर नहीं है। एक जगह कबीर दास का जीवन काल संवत् 1456-1557 (सन् 1399-1575 ई.) भी पढऩे को मिला है। जन्मतिथि की ही तरह उनके माता-पिता का भी पता नहीं मिलता। जनश्रुति के अनुसार वे किसी ब्राह्मणी के पुत्र थे। लोकलाज से उसने उन्हें काशी के लहरतारा तालाब के पास छोड़ दिया। जहां नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने इस परित्यक्त बालक को उठाकर अपने बालक की ही भांति पालन-पोषण किया। कहा जाता है कि जिस जुलाहा परिवार में कबीर का पालन हुआ था उस पर नाथ पंथियों का प्रभाव था। उसके साथ ही अपने गुरू स्वामी रामानंद के उपदेशों से इन्हें वेदांत और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त हुआ। देश भ्रमण के समय ये गोरखपंथी योगियों के संपर्क में भी आए। सूफी फकीरी का सत्संग भी इन्हें प्राप्त हुआ था, अत: इनकी रचनाओं में विभिन्न विचारधाराओं का प्रभाव परिलक्षित होता है।

कबीरदास जन्म से हिन्दू थे किन्तु उन्होंने अपनी वाणी से हिन्दू मुसलमान एकता का सन्देश दिया है।
हिन्दी काव्य को अपनी अटपटी वाणी और प्रौढ़ चिंतन से नए-नए क्षितिज प्रदान करने वाले कबीर केवल कवि ही नहीं वरन् उच्चकोटि के विचारक एवं पहुंचे हुए संत भी थे। कबीर का रहस्यवाद भारतीय ब्रह्मïज्ञान और सूफियों के प्रेमतत्व का अनूठा मिश्रण है।

कबीर ने साधु जीवन व्यतीत करते हुए भी श्रमजीवी साधुता की स्थापना की थी और समाज में ही नहीं साधु सन्यासियों में फैली कुरीतियों, अन्धविश्वासों पर करारी चोट की थी।
मगहर की अकाल पीडि़त जनता की समस्या खलीलाबाद के तत्कालीन नवाब बिजली खां ने संत कबीर को सुनाते हुए  उनसे मगहर चलने का निवेदन किया। लोगों के इस विश्वास को गलत सिद्ध करने के लिए कि काशी में मरने से स्वर्ग और मगहर में मरने से नरक मिलता है। वृद्ध एवं कमजोर होते हुए भी कबीर मगहर गये। कबीर ने जब मगहर जाने की तैयारी की तो भक्तों ने उनके वृद्ध शरीर की ओर ध्यान दिलाते हुए काशी न छोडऩे का आग्रह किया। कबीर ने दृढ़ भक्ति एवं गहन आत्मनिष्ठा का परिचय देते हुए कहा-
क्या काशी क्या ऊसर मगहर
जो पे राम बस मोरा
जो कबीर काशी मेरे समहि कौन निहोरा।
मगहर पहुंच कर कबीर ने अकाल से झुलसती हुई भूमि और पीडि़त जनता को देखकर एक स्थान पर धूनी रमा दी। कहते हैं कि गोरखनाथ गद्दी के उत्तराधिकारी नाथ साधु को पानी के लिए चुनौती रूप में संकेत किया। नाथ साधु कबीर की धूनी के पास अपने दायें पैर से पृथ्वी के एक अंश को तब तक दबाते रहे जब तक कि वहां जल स्त्रोत फूट न पड़ा। धीरे-धीरे वहां एक तालाब बन गया। जिसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है। इसी तालाब के किनारे कबीर की धूनी है।
कबीर का साहित्य रहस्यवाद से प्रभावित है। अपनी काव्य धारा में उन्होंने संत महिमा, ईश्वर-विश्वास, प्रेम, सत्संग, इन्द्रिय निग्रह, अहिंसा, सदाचार का महत्व बताया। जबकि कबीर के काव्य में बनाव, श्रृंगार, कांट-छांट और प्रदर्शन को स्थान नहीं मिला है। दृष्टांत, रूपक, भ्रमक आदि अलंकारों का उपयोग ऐसे हुआ है जैसे भावों के प्रवाह में सहज भाव से आ गये हैं। जहां सिद्धान्त प्रतिपादन है वहां भाषा माधुर्य-गुण से ओत-प्रोत लगती है। कबीर की अटपटी वाणी ऐसी विशेषता लिए हुए है कि उसके लिए कोई भी ईष्र्या कर सकता है।
कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है।
कबीर ने अपनी साखियों को ज्ञान की आंखें कहा है-
साखी आंखे ज्ञान की,
समुझि देखु मन नाहि
बिनु साखी संसार का,
झांगरा छूटत नाहिं।
शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं की कविताओं में मिलता है। रहस्यवादी कवि कबीर ने आत्मा और परमात्मा के पे्रम को अपनी दिव्यवाणी में प्रकट किया।
घूंघट के पट खोल रे
तो कों पीय मिलेंगे
सुन्न महल में दियरा बारिले
आसा सो मत डोल रे।
अपनी विरहिणी आत्मा को सांत्वना देते हुए आत्मा और परमात्मा की एकता स्थापित करने पर कबीर कह उठते हैं।
काहे री नलनी तू कुम्हलानी
तेरे ही नीले सरोवर पानी
जल में उतपति जल में वास
जल में नलनी तोर निवास।
दर्शन के क्षेत्र में जिसे अध्यात्मवाद कहा गया है, काव्य के क्षेत्र में उसे रहस्यवाद कहा गया है। कबीर ने इन शब्दों में रहस्यवाद को व्यक्त किया है।
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है
बाहर भीतर पानी
फूट कुम्भ जल जलहि समाना
यह तत कथो गियानी।
अन्य उदारहण देखिये-
लाली तेरे लाल की
जित देखों तित लाल
लाली देखने में गयी
हो गई लाल गुलाल।
कभी-कभी तो उस परम तत्व के साक्षात्कार से प्रेम विभोर होकर कबीर कह उठते हैं-
दुलहनि गाबहु मंगलचार
हमरे घर आए हो राजाराम भरतार
सुर तैतीसू कौटिन आए
मुनिवर सहस अढ़ासी
कहै कबीर हमें ब्याहि लै चले
एक पुरुष अविनाशी।
कहते हैं कबीर के शरीर त्याग के बाद उनके शव के स्थान पर कुछ पुष्प ही शेष मिले थे। जिन्हें दोनों समुदायों के लोगों ने आधा-आधा बांट लिया। काशी नरेश वीर सिंह बघेल ने समाधि निर्मित कराई, जबकि बिजली खां पठान ने उन फूलों को दफनाकर मकबरा बनाया। समाधि और मकबरा/ मजार आज भी अलग-अलग मौजूद हैं।
संसार में संभवत: संत कबीर ही अकेले ऐसे महापुरुष हैं, जो एक ही साथ कब्र में दफन भी ही हैं और समाधि में समाधिस्थ भी।
कबीर की भाषा में ओज है जो सीधा मर्म को बांधता है। इसलिए डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की वाणी को डिक्टेटर बताया है। व्यंग्य और चुटकी लेने में कबीर का कोई प्रतिद्वंदी नहीं। उनकी छन्द योजना स्वाभाविक है। लेकिन काव्यगत रूढिय़ों के वे न जानकार थे और न समर्थक।
रहस्यवादी कवि के रूप में कबीर के सामने केवल जायसी आते हैं। विश्व प्रसिद्ध कवि रवीन्द्र एवं आधुनिक छायावादी कवि भी कबीर की रहस्य भावना से प्रभावित ही नहीं बल्कि कुछ अंशों में ऋणी भी हैं। प्रभाव की दृष्टिï से कबीर के सामने केवल तुलसीदास आते हैं।
संत कबीरदास की रचनाओं के उदाहरण देखिये-
दिन भर रोजा रहत है,
राति, हनत हैं गाय
यह तो खून बह बन्दगी,
कैसे खुशी खुदाय।
मूड मुंडाये हरि मिले,
तो हर कोई लेय मुंडाय
बार-बार के मुंडते,
भेड़ न बैकुण्ठ जाय।
टूटे तार बिसर गई खूटी,
हो गया  धूरम धूरेका
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
अगन पंथ कोई सूरेका।
कबीर प्रेम के पथिक हैं। प्रेम में ही कबीर को ऊंच-नीच के भेदभाव का परित्याग कर सबकी एकता प्रतिपादित करने की प्रेरणा दी थी। कबीर का यह प्रेम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है, परमात्मा की सृष्टिï के सभी जीव-जन्तु उसकी परिधि में आ जाते हैं। उनमें विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और विचार धाराओं का अद्भुत सम्मिश्रण था।
 वे एक साथ योगी, भक्त, साधु, गृहस्थ, हिन्दू और मुसलमान थे। वे सच्चे अर्थ में भक्त थे। उनकी भक्ति भावना भगवान के प्रति संपूर्ण समर्पण चाहती थी। कबीर के सन्देश आज भी समाज के लिए प्रासंगिक है और हमें अनुप्राणित करते हैं।
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