व्यंग्य : दिन और दिवस

✍️राजेन्द्र सिंह गेहलोत - विभूति फीचर्स

वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन तो महज दिन होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ दिन 'दिवस' के होते हैं जो कि संबंधित जन को बहलाने-फुसलाने मनाने, पटाने के उद्ïदेश्य से मनाए जाते हैं, ठीक भूख से रोते बच्चे को झुनझुना देकर बहालने जैसे।

कुछ 'दिवस' स्मरण दिवस जैसे होते हैं, जो कि लोगों की विलुप्त स्मृतियों को खोजकर वापस लाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं मसलन 'स्वतंत्रता दिवस' को ही ले लीजिए। महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी आदि की बेडिय़ों से जकड़ी जनता जब कभी दिग्भ्रमित होने लगती है कि वह स्वतंत्र है या परतंत्र तब वर्ष में एक बार 'स्वतंत्रता दिवस' मनाकर उसे यह याद दिला दिया जाता है कि वह स्वतंत्र है। भाषणों के डोज पिलाकर यह समझा दिया जाता है कि 'स्वतंत्रता' को उसे ही बचाना है, सहेजना है, संवारना है। (यह सब करना राजनेताओं की बस की बात नहीं है) बस जनता खुशी से फूलकर कुप्प हो जाती है, और महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी आदि के बोझ से लदी पीठ से निहुरते हुए विनम्रता भरी खुशी से थोड़ा और निहुरकर राजनेताओं से हुलस कर कहती है-'हओ दद्दा। और लाद दो सब हम कब्ब इंकार कर रये। महंगाई लादो, गरीबी लादो, भ्रष्टाचार लादो, बेरोजगारी लादो, एक चुनाव और लादने है, लाद दो। अभी हमारी कमर थोड़ी टूटी है और टूट भी जैहे तो हम जमीन पे पट्ट पड़े सब सबहबे के लाने तैयार पड़े हैं। मालक।

 हम तो भूलई गय रहे है कि ये सबके लाने आजाद हैं' अगस्त के बाद सितम्बर लगते ही जनगणना से लेकर जिस-जिस को भी गणना करवाना हो जो भी सर्वेक्षण करवाना हो या फिर निर्जन स्थान में चुनाव ड्ïयूटी करवानी हो, सब बेगार लेने के लिए सदैव सुलभ प्राणी 'शिक्षक' को वर्ष में एक बार बहलाने मनाने पटाने के लिए 'शिक्षक दिवस का झुनझुना थमा दिया जाता है कि इसे बजा-बजाकर खुश रहो। खबरदार जो अभाव का रोना रोया। देश का भविष्य तुम्हारे हाथों में है। पर अब कुछ 'माटसाब' लोग भी शिक्षक के साथ बहुधंधी और कुछ लोग बहुरंगी भी नजर आने लगे हैं, जिनमें से कुछ शिक्षकों ने तो विशेष ख्याति भी अर्जित की है। जबसे छात्र-छात्राओं को यौन शिक्षा दिए जाने की बात चर्चा में आई है, तबसे कुछ शिक्षकों ने अपनी छात्राओं को प्रायोगिक रूप से यह शिक्षा देने का पुण्य कार्य किया। विदेश में तो एक शिक्षिका बहन जी ने अपने 15-16 वर्ष के किशोर छात्र को यौन प्रशिक्षण देते हएु बाकायदा पुत्र रत्न की प्राप्ति भी की तो फिर ऐसे में हमारे देश के शिक्षक अपने पुरुषत्व का अपमान कैसे सहते फल्स्वरूप अभी कुछ दिनों पूर्व ही एक समाचार पढऩे में आया जिसमें कि एक नर पुंगव शिक्षक ने फेल करने की धमकी देकर बाकायदा एक शिष्या को स्कूल में तब तक यौन प्रशिक्षण दिया, जब तक कि वह गर्भवती न हो गई।

एक शिक्षक कुल गौरव रत्न ने एक छात्र को शारीरिक क्षमता का परीक्षण अपनी मारपीट की कसौटी पर इस हद तक लिया कि बेचारा ईश्वर को प्यारा हो गया। इस शिक्षक दिवस पर निसंदेह इन शिक्षक रत्नों को सम्मानित किया जाना चाहिए। अब शिक्षक के स्थान पर शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति होने लग गई है, जो कि इसे अपना भाग्य मानते हुए शिक्षक कार्य की चिंता किए बिना वेतन लिए भी अपना कार्य करने में सक्षम नजर आते हैं, इनके लिए संभवत: अलग से शिक्षाकर्मी दिवस मनाना होगा।

सितम्बर के मध्य में हिन्दी नामक दिवंगत भाषा को श्रद्धासुमन समर्पित करने के उद्देश्य से हिन्दी दिवस मनाया जाता है। इस दिवंगत भाषा को आत्मा की शांति हेतु इस अवसर का विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, मसलन 'राष्ट्रभाषा, 'राजभाषा, 'संपर्क भाषा' आदि। सामान्यत: मृतक की आत्मा की शांति हेतु तेरह दिन में मृतक भोज दिया जाता है, लेकिन इस विशाल आत्मा की विशाल क्षेत्र में व्यापकता को देखते हुए इसकी आत्मा की शांति हेतु पूरे पंद्रह दिन का एक पखवाड़ा शासकीय कार्यालयों में मनाया जाता है, जिससे कि कभी-कभी यह गलत फहमी होने लगती है कि अभी हिन्दी पूरी तरह मृत नहीं हुई है लेकिन पंद्रह दिनों के बाद ही महसूस होने लगता है कि दरअसल वह हिन्दी का भूत था जिसे कि इस पखवाड़े में जगाया गया था और जब ओझा गुनिया उसे भगाने में लगे हुए थे। भारत के अंग्रेजी भाषा के लेखक विक्रम सेठ एवं अरूंधती राय के अंग्रेजी भाषा के उपन्यासों पर करोड़ों रुपयों की रॉयल्टी की खबर सुनकर बेचारे हिन्दी भाषा में कालजयी रचना के सृजक भी अपनी पुस्तकों के प्रकाशकों के मुंह बिटर-बिटर ताकते रह जाते हैं, जो कि कभी एक लाख रुपए की रॉयल्टी भी उन्हें प्रदान करने में सक्षम न हो सके। जबकि भारत में हिन्दी भाषा की तुलना में अंग्रेजी भाषा के पाठक मात्र दस या बीस प्रतिशत ही होंगे। इसे अंग्रेजी भाषा की बलिहारी महिमा एवं हिन्दी भाषा की दयनीय दशा के एक उदाहरण के रूप में स्वीकारा जा सकता है।

हिन्दी की इस दुर्दशा के बावजूद हिन्दी भाषा प्रेमियों को बहलाने फुसलाने के लिए वर्ष में एक बार 'हिन्दी दिवस' का आयोजन कर हिन्दी लेखक एवं उनकी कृतियों को झाड़ पोंछकर सजा दिया जाता है, सम्मानित कर दिया जाता है, याद कर लिया जाता है तथा उसके बाद उनको अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। 'हिन्दी दिवस' के समारोह के अवसर पर जमा हिंदी का कचरा साफ हो जाता है फिर पूरे समर्पण एवं अनुराग से इंग्लिश मेमसाब के प्रति दीवानगी भरी चाहत से वे समर्पित हो जाते हैं।

इन दिवसों के अतिरिक्त भी कई और भी निरर्थक दिवस मनाए जाने की परंपरा हमारे देश में है, लेकिन अभी तक सार्थक एवं उपयेागी दिवस मनाए जाने की परंपरा की शुरुआत नहीं हुई। मेरा विनम्र सुझाव कुछ सार्थक विषयों के संदर्भ में है मसलन 'भ्रष्टाचार दिवस', 'महंगाई दिवस', 'बेईमानी दिवस', 'कालाबाजार दिवस', 'भाई भतीजावाद दिवस', 'बेरोजगारी दिवस' , आदि-आदि। इन दिवसों के पखवाड़े, समारोह, वर्षगांठ, रजत जयंती, हरीक जयंती कुछ भी मनाई जा सकती है, ये यथार्थ है शाश्वत है और सर्वकालिक है। यदि शिक्षक दिवस की अपेक्षा कोई अधिक उपयोगी पद का दिवस मनाना है तो वह है 'थानेदार दिवस', 'पटवारी दिवस', 'अधिकारी दिवस'आदि-आदि। आशा है घिसी-पिटी परंपरा का त्याग कर निरर्थक दिवस की अपेक्षा इन सार्थक दिवसों को मनाए जाने की सार्थक परंपरा की शुरुआत की जाएगी।
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