शिक्षा की दुकान बन गए हैं प्राइवेट स्कूल


✍️उषा कौशिक -विनायक फीचर्स

आजकल हमारे देश में प्राय: सभी बड़े शहरों या कस्बों में अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों का बहुत बोलबाला है। जन साधारण की यह धारणा हो गई है कि सरकारी स्कूलों की अपेक्षा ये प्राइवेट स्कूल ज्यादा अच्छे हैं। इन स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के मन में भी यह भावना पैदा कर दी जाती है कि सरकारी स्कूलों के बच्चों के बजाय वे ज्यादा ऊंचे हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है।


इन स्कूलों में प्राय: नवयुवतियां शिक्षिकाएं होती हैं। वे लगभग अप्रशिक्षित स्नातक होती है या जिन्हें सुविधा होती है वे नवयुवतियां अपना समय गुजारने के उद्देश्य से ऐसे स्कूलों में पढ़ाने का काम करती हैं। वे पढ़ाने का काम कम परंतु आकर्षक गुडिय़ा का काम अधिक करती हैं। इन्हीं नवयुवतियों के आकर्षण से अभिभावक यह मानकर कि ये स्कूल सरकारी स्कूल से बढिय़ा है अपने बच्चे को भर्ती करवा देते हैं।

वास्तव में स्कूल शिक्षिकाओं का चयन कैसे करते हैं इस पर भी हमें एक नजर डाल लेना चाहिए। प्रतिवर्ष ये शिक्षिकाओं की आवश्यकता है- का विज्ञापन निकलवाते हैं और जब कोई लड़की साक्षात्कार के लिए आती है तो उसका लंबा सा इंटरव्यू लिया जाता है। 10-15 दिन तक टेस्ट के रूप में अध्यापन आदि का कार्य बिना वेतन के करवाते हैं। इन शिक्षिकाओं को वेतन भी 700 रुपये या 800 रुपये से ज्यादा नहीं दिया जाता है। इस कारण नवयुवतियां शौकिया ही इन स्कूलों में अध्यापन का काम करती हैं।

किसी भी बड़े शहर कस्बे के व्यस्ततम चौराहे या सड़क पर आपको ये स्कूल या उनके कार्यालय दिखाई पड़ जाएंगे। यदि ये स्कूल मुख्य सड़क पर है तो राह चलते व्यक्तियों को इनका दिखावटी अनुशासन इनकी आकर्षक रंगीन पोशाकों में सजे नन्हे-नन्हे बच्चे, बच्चों को लाने ले जाने वाला वाहन आदि नजर आते है जिनसे अभिभावक आकर्षित होते हैं। जो अभिभावक महत्वाकांक्षी होते हैं वे अपने बच्चों को ऐसे ही स्कूलों में भर्ती करवाना पसंद करते हैं। लेकिन यदि इन स्कूलों के क्रिया-कलापों पर नजर डालें तो ये स्कूल, स्कूल न होकर किसी व्यापारी की दुकान से अधिक कुछ भी नहीं है। 

यहां पढ़ाई का काम कबूतरखानेनुमा किसी दमघोंटू कमरे में होता है जहां पर कि बच्चे आसानी से बैठ भी नहीं पाते। इन विद्यालयों के संचालक बच्चों के अभिभावकों की पढ़ाई केदौरान अपने बच्चों से मिलने भी नहीं देते ताकि अभिभावक अपने बच्चों की दयनीय स्थिति को नहीं देख सके। अभिभावकं से यह बहाना बनाया जाता है कि पढ़ाई में बाधा होती है। इस प्रकार अभिभावकों को वास्तविकता से परे रखा जाता है। कभी-कभी दो कमरों का विद्यालय भी होता है। इन स्कूलों में खेल का मैदान, लायब्रेरी आदि भी नहीं होते हैं, फिर भी बच्चों से क्रीड़ा-शुल्क, लायब्रेरी शुल्क आदि हर माह वसूल किया जाता है।

तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के इन स्कूलों में कमरतोड़ शिक्षण-शुल्क वसूल किया जाता है जिनमें वार्षिकोत्सव फंड, परीक्षा फीस आदि होती है। विद्यालय धन बटोरने के कई नए-नए तरीके अपनाते हैं। ये हर वर्ष वार्षिकोत्सव मनाते हैं जिसका उद्घाटन किसी बड़े नेता या मंत्री से करवाते हैं और उत्सव के नाम पर काफी पैसा बटोरा जाता है। वार्षिकोत्सव मनाने के लिए किसी व्यस्त चौराहे का चयन किया जाता है जहां पर रंग बिरंगे शामियाने लगाए जाते हैं तथा उद्घाटनकर्ता का जोशीला स्वागत किया जाता है। 

इन स्कूलों में चलने वाला पाठ्यक्रम सबसे निराला होता है जिसकी पुस्तकें बाजार में आसानी से उपलब्ध नहीं होती है। इस कारण स्कूल के संचालक ही ये पुस्तकें बच्चों को लाकर देते हैं जिनका मनमाना मूल्य वसूल किया जाता है। कभी-कभी ये संचालक पुस्तकों के लिए किसी विशेष दुकानदार को नियुक्त कर देते हैं और उस दुकानदार से अपना मुनाफा निश्चित कर लेते हैं। इन स्कूलों के बच्चों के ड्रेस की जवाबदारी भी ये संचालक ही ले लेते हैं और स्वयं खरीद कर लाते हैं व बच्चों के अभिभावकों से प्रवेश के समय ही ड्रेस व पुस्तकों की कीमत वसूल कर लेते हैं जिससे इनको भारी आय होती है।

 ये अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं। महत्वाकांक्षी अभिभावक इनकी चकाचौंध में आते जा रहे हैं जबकि ये विद्यालय शिक्षण संस्था नहीं है बल्कि वहां धन बटोरने का काम किया जाता है फिर भी लोग अपने बच्चों को शासकीय स्कूलों में भेजना पसंद नहीं करते। उनका बच्चा फर्राटे से अंग्रेजी बोले इस लालच में वे अपने बच्चे की इन संस्थाओं में जानबूझकर धकेलते है।
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