खरीददारी में समझदारी जरूरी

(सत्यशील अग्रवाल - विनायक फीचर्स)
हमारी सभी भौतिक आवश्यकताएं हमारे अथवा हमारे प्रियजनों द्वारा अर्जित धन से पूरी होती हैं। धन का अर्जन करना कोई आसान कार्य नहीं होता। सतत परिश्रम द्वारा ही हम अपनी एवं अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करते हैं। अब यदि परिश्रम से कमाए धन को व्यय करने में भी संयम एवं समझदारी से काम लें तो शायद अपने धन का अधिक सदुपयोग कर सकते हैं।समान खर्चे में अधिक सेवाएं और अधिक वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं। प्रस्तुत लेख में विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है कि, खर्च करते समय क्या रणनीति अपनाई जाय ताकि हमें अपने धन का अधिक से अधिक मूल्य प्राप्त हो  सके।और अपनी या अपने परिजन की गाढ़ी कमाई को बेकार जाने से रोक सकें।
समाज में  आय स्तर के अनुसार तीन  भागों में विभाजित किया गया है उन्हें अपनी खरीदारी के निर्णय अपनी आय सीमा के अंतर्गत लेने पड़ते हैं, चतुर्थ वर्ग में खरीदार की आय के अनुसार नहीं बल्कि उसका परिस्थितिवश आवश्यकतानुसार निर्णय लेना होता है।
प्रथम वर्ग - इस श्रेणी में उच्चतम आय वर्ग के उपभोक्ताओं  को रखा गया है। यह वर्ग खरीददारी करते समय सिर्फ उच्चतम क्वालिटी को ध्यान में रख कर खरीददारी करता है ,अर्थात अपनी पसंद और उच्च गुणवत्ता का उद्देश्य होता है।वस्तु या सेवा की उच्चतम कीमत उन्हें वस्तु की उच्च क्वालिटी का आभास कराती है।
द्वितीय वर्ग - इस वर्ग में हमने मध्यम आय वर्ग के उपभोक्ताओं  को रखा है।इस वर्ग के व्यक्ति खरीदारी करते समय वस्तु या सेवाओं की गुणवत्ता और मूल्य दोनों का समान रूप से विश्लेषण कर ही अपना निर्णय लेते हैं। हर पहलु से जांच परख करने के कारण अपने धन का सदुपयोग कर पाने में सर्वाधिक सफल रहते हैं।
तृतीय वर्ग - अल्प आय वर्ग अथवा निम्न आय वर्ग खरीदारी  करते समय सिर्फ वस्तु की कीमत पर ध्यान देते हैं। इस वर्ग के लोग सिर्फ कम से कम खर्च में अधिक से अधिक वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।इसी कारण निम्न गुणवत्ता की वस्तु खरीद लेना महंगा भी पड़ जाता है क्योंकि निम्नतम गुणवत्ता की वस्तुएं कम टिकाऊ होती हैं , और उन  वस्तुओं में बहुत बड़ा भाग प्रयोग करने लायक ही नहीं होता।
चतुर्थ वर्ग  - इस वर्ग के अंतर्गत   खरीददारी परिस्थितियों की विवशता के कारण करनी पड़ती है अनेक बार मान सम्मान अथवा शारीरिक-मानसिक रुग्णता में  मजबूरी वश करनी होती है और बाजार मूल्य से कहीं अधिक खर्च कर अपनी आवश्यकता पूर्ण करनी पड़ती है, कभी कभी अपनी आर्थिक सामथ्र्य से भी अधिक व्यय करना पड़ता है। वस्तु की कीमत से अधिक उसकी आवश्यकता पर ध्यान देना होता है।जैसे बीमारी की आकस्मिकता, किसी प्रिय बच्चे की जिद पूर्ण करने की मजबूरी ,किसी आगंतुक या अतिथि के साथ खरीद  करते समय, कुछ दुर्लभ परिस्थितियों में जैसे देर  रात  के समय  आटो न मिलने की स्थिति, दुर्घटना हो जाने पर अपने प्रियजन की जान बचाने की स्थिति में, किसी शुभ अवसर पर अपनी चिर प्रतीक्षित अभिलाषा पूर्ण करने की स्थिति ,यात्रा के समय आने वाले अनेक दुर्लभ पलों में इत्यादि।
*कैसे हो समझदारी से खरीदारी*
प्रथम वर्ग - इस वर्ग के पास धन की कोई सीमा नहीं होती अत: उनकी खरीदारी का लक्ष्य सिर्फ उच्चतम क्वालिटी या अपनी पसंद होता है। उच्चतम मूल्य की वस्तु खरीदना उन्हें गौरव प्रदान करता है। उनकी इसी सोच का व्यापारी, दुकानदार या सेवा प्रदाता लाभ उठाते हैं। वे क्वालिटी में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर कीमत दो गुनी या उससे भी अधिक कर देते हैं। इस वर्ग के सौभाग्यशाली उपभोक्ता यदि अपनी समझदारी से कीमत एवं गुणवत्ता का ध्यान कर अपनी खरीदारी करें तो कुछ पैसा व्यापारी की जेब में जाने से रोककर अपने अधीनस्थ गरीब व्यक्ति का जीवन स्तर सुधारने का प्रयास कर सकते हैं। या फिर किसी असक्षम व्यक्ति के भरण पोषण की जिम्मेदारी निभाकर सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा सकते हैं और आत्मसंतोष का सुख प्राप्त कर सकते हैं।
द्वितीय वर्ग - इस वर्ग के अंतर्गत आने वाले खरीदार काफी समझदारी से अपनी सीमित आय को खर्च करते हैं, ताकि अपनी आय और व्यय  में संतुलन बनाये रख सकें साथ ही वस्तु भी गुणवत्ता वाली प्राप्त कर सकें। कभी कभी गुणवत्ता की जानकारी के अभाव में नुकसान उठाना पड़ता है।
इसी प्रकार कोई कपडा खरीद कर अनेक वर्षों तक चलता है परन्तु अधिक दिन पहनने के कारण उससे मन खीजने लगता है ,महंगा होने के कारण शीघ्र बदलना भी संभव नहीं होता, यदि कम टिकाऊ परन्तु सस्ता कपडा लिया जाय तो उसी कीमत में दो या तीन जोड़ी कपडे खरीदना संभव होगा और नित्य बदल बदल कर कपड़े पहनना संभव हो सकेगा
इसी प्रकार फैशन बदलने के कारण महंगा कपड़ा खरीदना नुकसानदेह सिद्ध हो सकता है।
तृतीय वर्ग - इस वर्ग में आने वाले खरीदार आर्थिक रूप से अत्यंत सीमित दायरे में रहकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती करते हैं। अत: वे गुणवत्ता पर अधिक ध्यान नहीं देते। उन्हें सिर्फ सस्ते संसाधन जुटा लेने की तमन्ना रहती है। वस्तु की मात्रा भी कम से कम खरीदनी पड़ती है, ताकि कम खर्च से सभी आवश्यक वस्तुएं खरीद सकें। कम मात्रा में  वस्तु खरीदने से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है और उन्हें आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। सस्ती वस्तु अनेक बार इतनी घटिया क्वालिटी की होती है उसे बार बार खरीदना पड़ता है, या क्वालिटी खराब होने के कारण कम उपयोगी हो पाता है।जैसे कम मूल्य वाला दूध मिलावटी हो सकता है ,सब्जियों में गली सड़ी अधिक मात्रा में हो सकती हैं।अत: खरीदारी करते समय सिर्फ मूल्य देख कर लेना महंगा पड़ जाता है।अपने धन का पूरा मूल्य  वसूल हो सके यह देखना भी आवश्यक है। ताकि आपकी परिश्रम से अर्जित की गयी आय का भरपूर सदुपयोग हो सके यदि आवश्यक हो तो किसी अनुभवी मित्र से सलाह लेना उचित हो सकता है। सीमित आय होने के बावजूद यदि प्रत्येक वस्तु को मासिक खपत के आधार पर लेने की आदत डालें तो तो बड़ी मात्रा में वस्तु लेने के कारण सस्ती पड़ सकेगी। इस कार्य के लिए एक एक कर वस्तुओं का संग्रह करने की योजना बनाये. धीरे धीरे आपके मासिक खर्च का चक्र बन जायेगा और आपके अपने बजट में ही अतिरिक्त वस्तुएं खरीद पाने का लाभ उठा सकेंगे।
चतुर्थ वर्ग - इस वर्ग के अंतर्गत खरीददारी करने में अत्यधिक समझदारी का परिचय देना होता है। क्योंकि निर्णय लेने के लिए अधिक समय नहीं होता अत: आवश्यक वस्तु या सेवा प्राप्त करने के लिए अपने बजट से अधिक खर्च करना पड़ता है। यह जानते हुए कि अमुक वस्तु या सेवा महंगी होने के साथ साथ अपनी क्षमता से अधिक है फिर भी समय की जटिलता को देखते हुए ,कठिन परिस्थितियों के कारण अपनी सीमायें तो तय कर व्यय करने को विवश होना पड़ता है। ऐसे दुर्लभ अवसरों पर कीमतों का विश्लेषण करना या उचित अनुचित देखना ठीक नहीं होता, मध्यम आय वर्ग एवं अल्प आय वर्ग के लिए संतुलित निर्णय लेना समझदारी होगी
उपरोक्त विश्लेषण से निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक वर्ग के खरीददार को समय की नजाकत, कीमत, परिमाण एवं गुणवत्ता में संतुलन बना कर खरीदारी करनी चाहिए, क्योंकि समझदारी से की गयी खरीददरी आपकी अपरोक्ष रूप से आय बढा देती है आपका धन अधिक मूल्यवान साबित होता है।
अपने परिवार की कुल आय में से कम से कम 10 प्रतिशत प्रतिमाह बचाना भी आवश्यक है ताकि आकस्मिक आने वाले खर्चो से निबटा जा सके, जैसे बीमारी या अन्य कोई आकस्मिक खर्च। जो व्यक्ति अपने बजट में बचत को महत्व देते है उन्हें जीवन में आर्थिक कठिनाईयों का सामना करने में कम कष्ट होते हैं।
हमारे घर का बजट कितना भी बड़ा न हो, घर के बजट अर्थात अपनी आर्थिक सामर्थ्य एवं प्रत्येक खर्चे की वरीयता निश्चित कर खरीददारी करना समझदारी का कदम है। किसी वस्तु या सुविधा पर खर्च करना अधिक आवश्यक है और किस पर नहीं, साथ ही, किस वस्तु पर हम कितना व्यय करने की क्षमता रखते है, इसका विश्लेषण करना भी आवश्यक होता है। अपने घर के बजट का एक अंश, दान के लिए भी रखना उचित होगा, यह अंश दो से पांच प्रतिशत तक अपनी इच्छा के आधार पर रखा जा सकता है. परन्तु दान किसी सुपात्र यानि ऐसे व्यक्ति को दिया जाय जिसे वास्तव में उसकी अपनी मूल आवश्कताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हो। (विनायक फीचर्स) 
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