Uttarakhand : समर्पण, शौर्य और रहस्य से ओतप्रोत — माँ वाराही धाम में रक्षाबंधन पर खेला गया पत्थरों का युद्ध
(रमाकान्त पन्त – विभूति फीचर्स) देवीधूरा (चम्पावत) : Uttarakhand के चम्पावत जिले में समुद्र तल से करीब 7000 फीट ऊंचाई पर स्थित माँ वाराही शक्तिपीठ में रक्षाबंधन के पावन अवसर पर सदियों पुरानी अनूठी परंपरा “बग्वाल” (पत्थर युद्ध) का आयोजन भव्य रूप से संपन्न हुआ। आस्था, पराक्रम, परंपरा और पौरुष का यह अनोखा संगम आषाढ़ी कौतिक मेले के रूप में सजीव हुआ, जिसमें देश-विदेश से आए लाखों श्रद्धालुओं ने हिस्सा लिया।
यह पर्व न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि अपनी रहस्यमयी परंपराओं के कारण भी विश्वभर में चर्चा का विषय बना हुआ है। सदियों पुरानी मान्यताओं के अनुसार माँ वाराही देवी की प्रसन्नता के लिए चार पारंपरिक खामों — लमगड़िया, वालिक, चम्याल और गहड़वाल — के रणबांकुरे एक-दूसरे पर पत्थरों की वर्षा करते हैं।
आस्था के लिए बहता है खून
बग्वाल का आयोजन दूबा चौड़ मैदान में विधिपूर्वक पूजा-अनुष्ठान के बाद होता है। योद्धा ढाल, फल-फूल और पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ मैदान में उतरते हैं। मंदिर के पुजारी द्वारा शंखनाद होते ही युद्ध आरंभ होता है और विजय का निर्णय उस खाम के पक्ष में होता है जो मैदान के मध्य निर्धारित स्थल को पहले स्पर्श करता है। युद्ध के दौरान घायल होना सामान्य बात है, फिर भी सभी योद्धा युद्ध के बाद गले मिलकर भाईचारे और सद्भावना की मिसाल पेश करते हैं।
हाल के वर्षों में प्रशासन और मेला समिति द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से बग्वाल में पत्थरों की जगह अब फलों और फूलों का प्रयोग भी प्रारंभ किया गया है, जिससे इस परंपरा को भविष्य में और भी सुरक्षित बनाया जा सके।
माँ वाराही की प्रतिमा का रहस्य
इस शक्तिपीठ की सबसे बड़ी विशेषता है माँ वाराही की दुर्लभ मूर्ति, जिसे आज तक किसी ने खुली आंखों से नहीं देखा। मान्यता है कि जो भी इसे देखने का प्रयास करता है, वह अंधा हो जाता है। मूर्ति को एक तांबे के बक्से में सुरक्षित रखा गया है, जिसे रक्षाबंधन के दिन विशेष विधि से दूध से स्नान और श्रृंगार कराया जाता है। इस कार्य में पुजारी और बागड़ जाति के व्यक्ति की आंखों पर काली पट्टी बांधी जाती है और पूरे अनुष्ठान के दौरान रहस्य और भक्ति का अद्वितीय संगम देखने को मिलता है।
पौराणिकता और प्रकृति का अद्भुत संगम
वाराही धाम का इतिहास पांडवों से जुड़ा माना जाता है। भीम शिला, शिवलिंग, गुफा मंदिर, और सोने की मूर्ति की गाथा जैसे अनेक रहस्यमयी प्रसंग इसे और भी पावन बनाते हैं। मंदिर परिसर देवदार, बांज, काफल और चीड़ जैसे वृक्षों से घिरा हुआ है और वातावरण में आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव सहज रूप से होता है।
बग्वाल से पहले महीनों की तैयारी
बग्वाल में भाग लेने वाले योद्धा आयोजन से एक माह पूर्व व्रत और संयम का पालन करते हैं। भोजन तक में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यह मान्यता है कि योद्धा की शुद्धता ही उसे युद्ध में घायल होने से बचाती है। घायल योद्धाओं का उपचार पारंपरिक बिच्छू घास से किया जाता है।
उपसंहार
देवीधूरा का माँ वाराही धाम एक ऐसा स्थल है, जहाँ आस्था, परंपरा, रहस्य और प्रकृति मिलकर अद्वितीय धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करते हैं। बग्वाल मेला अब केवल उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि पूरे भारत की विरासत बनता जा रहा है। यहाँ की हर परंपरा, हर कथा और हर श्रद्धालु का समर्पण, इस स्थान को भारत के अद्भुत धार्मिक स्थलों में एक विशेष स्थान दिलाता है।