Jharkhand : “गुरुजी नहीं रहे, पर चेतना ज़िंदा है: झारखंड के जनआंदोलन की आत्मा थे शिबू सोरेन”
संथाल हूल से लेकर संसद तक—शिबू सोरेन की राजनीति संघर्ष, अस्मिता और आत्मनिर्भरता की लंबी गाथा है
सुधीर पाल – विनायक फीचर्स : Jharkhand के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन, जो ‘गुरुजी’ के नाम से पूरे राज्य और आदिवासी समाज में जाने जाते हैं, अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके विचार, उनके संघर्ष और उनके सपने आज भी झारखंड की माटी में सांस ले रहे हैं।
शिबू सोरेन केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि झारखंड के जनांदोलनों की धड़कन थे। उनके जीवन की शुरुआत एक क्रांतिकारी चेतना के साथ हुई, जिसने उन्हें पहले सामाजिक कार्यकर्ता और फिर जननेता बनाया। उनके संघर्ष की जड़ें उसी मिट्टी में थीं, जिसमें 1855 का संथाल विद्रोह पनपा था।
हूल से हुंकार तक: एक चेतना की यात्रा
1855 में सिदो-कान्हू ने जिस “हूल” यानी विद्रोह की शुरुआत की, उसकी गूंज शिबू सोरेन के “हुंकार” में सुनाई दी। दोनों आंदोलनों का उद्देश्य समान था—ज़मीन, जंगल और आत्मसम्मान की रक्षा।
जहाँ संथाल विद्रोह ब्रिटिश, महाजन और ज़मींदार व्यवस्था के विरुद्ध था, वहीं शिबू सोरेन का आंदोलन आधुनिक व्यवस्था में आदिवासियों की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए था।
नक्सली छवि से जननायक तक
शुरुआत में शिबू सोरेन के आंदोलन को उग्र और हिंसक माना गया। वे पुलिस की निगाह में “खतरनाक तत्व” थे, लेकिन जनता उन्हें “गुरुजी” के रूप में पहचानने लगी।
के.बी. सक्सेना जैसे ईमानदार नौकरशाह के मार्गदर्शन से शिबू सोरेन की सोच ने दिशा बदली—उन्होंने बंदूक की जगह संविधान और संसद को अपना हथियार बनाया।
झारखंड राज्य के निर्माता
1972 में उन्होंने ए.के. राय और बिनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। झारखंड आंदोलन को उन्होंने जनचेतना का रूप दिया।
2000 में जब झारखंड राज्य अस्तित्व में आया, तो यह केवल एक प्रशासनिक घटना नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विजय थी। इसमें सबसे बड़ा नाम था—शिबू सोरेन।
राजनीतिक सफर और उपलब्धियाँ
शिबू सोरेन ने सात बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया और केंद्र सरकार में कोयला मंत्री और जनजातीय मामलों के मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे।
उनकी कोशिशों से वन अधिकार, पेसा कानून, आदिवासी भाषाओं की मान्यता और जनजातीय विकास को दिशा मिली।
विवादों के बीच भी विश्वास बना रहा
हालाँकि उनके राजनीतिक जीवन में शशि नाथ झा हत्याकांड और कोयला घोटाले जैसे विवाद भी रहे, लेकिन आदिवासी जनता के बीच उनकी लोकप्रियता और “धरती पुत्र” की छवि कभी धूमिल नहीं हुई।
एक विचार, एक आंदोलन, एक प्रतीक
आज जब हम शिबू सोरेन को याद करते हैं, तो हम केवल एक व्यक्ति को नहीं, एक युग, एक चेतना, एक राजनीतिक दर्शन को याद कर रहे हैं।
उनकी जिंदगी बताती है कि कैसे संघर्ष से सत्ता तक की यात्रा, केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि सामूहिक अधिकारों की स्थापना की लड़ाई हो सकती है।
अंतिम प्रश्न, जो आज भी ज़िंदा हैं:
- क्या आज भी झारखंड के आदिवासी अपनी जमीन के मालिक हैं?
- क्या ग्रामसभाएं स्वतंत्र हैं?
- क्या खनिज संपदा का लाभ झारखंडवासियों को मिल रहा है?
अगर जवाब ‘ना’ है, तो ज़रूरत है हूल की आत्मा और गुरुजी की रणनीति को फिर से समझने की।