Tribal Literature Festival 2025 (प्रकाश कुमार गुप्ता) : 27-29 मार्च 2025 के बीच केरल के कोझिकोड में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी साहित्य महोत्सव 2025 में झारखंड और पश्चिम सिंहभूम जिले के प्रमुख आदिवासी विचारक, लेखक और समाजसेवी रबिन्द्र गिलुवा और पूनम देवगम ने KIRTADS (केरल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च, ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट स्टडीज फॉर शेड्यूल्ड कास्ट्स एंड ट्राइब्स) के निदेशक डॉ. एस. बिंदु से एक महत्वपूर्ण मुलाकात की। इस अवसर पर आदिवासी समाज से जुड़े कई महत्वपूर्ण विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई और विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश की गई।
आदिवासी अधिकारों और सामाजिक स्थिति पर गहन विचार-विमर्श
इस मुलाकात में मुख्य रूप से आदिवासी समाज की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति पर बात की गई, विशेष रूप से झारखंड के आदिवासियों के अधिकारों और संघर्षों पर। चर्चा का एक अहम बिंदु पेसा कानून, वन अधिकार अधिनियम, और छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) जैसे कानूनों के महत्व और उनके आदिवासी समाज पर प्रभाव को लेकर था। साथ ही, कोल्हान क्षेत्र की भूमि की रक्षा में आदिवासियों की भूमिका और उनके संघर्ष के ऐतिहासिक संदर्भों पर भी विचार किया गया। इस चर्चा में झारखंड आंदोलन, खरसावां गोलीकांड और पोटो हो नारा हो आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी विचार किया गया।
आदिवासी धर्म, भाषा और संस्कृति की सुरक्षा का मुद्दा
मुलाकात में आदिवासी समुदाय के धार्मिक मान्यताओं, उनके लिए एक अलग धर्म कोड की आवश्यकता, हो भाषा की स्थिति, और संस्कृति एवं परंपराओं की रक्षा पर भी चर्चा की गई। आदिवासी समाज की पहचान और उनके पारंपरिक जीवनशैली को बनाए रखने की कोशिशें आज के समय में और भी महत्वपूर्ण हो गई हैं, खासकर जब आधुनिकता और औद्योगीकरण ने उनके जीवन को प्रभावित किया है। यह विचार विमर्श हुआ कि किस तरह आदिवासी समाज को अपनी पहचान बनाए रखते हुए समकालीन बदलावों का सामना करना चाहिए।

विकास के नाम पर विस्थापन और पलायन का दर्द
कोल्हान क्षेत्र में हो रहे तेज़ औद्योगिकीकरण और खनन परियोजनाओं के कारण आदिवासियों के विस्थापन और पलायन पर भी गहरी चिंता जताई गई। कई आदिवासी परिवारों की पारंपरिक भूमि, जो उनकी आजीविका का आधार थी, कंपनियों और खनन परियोजनाओं के अधीन आ रही है। विकास की आड़ में आदिवासी समुदाय अपनी जड़ों से कटकर शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं। यह पलायन केवल भौगोलिक बदलाव नहीं, बल्कि उनके सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने के टूटने की एक त्रासदी है।
शहरी क्षेत्रों में पलायन करने वाले आदिवासियों को असंगठित क्षेत्रों में काम करने पर मजबूर होना पड़ता है, जहां वे शोषण का शिकार हो रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, जो आदिवासी कभी अपने खेतों और जंगलों में स्वतंत्र रूप से जीवन यापन करते थे, वे अब दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं, और उनके पास अपने पारंपरिक जीवन के समर्थन में कोई वैकल्पिक विकल्प नहीं है।
आदिवासी साहित्य और संघर्षों का संरक्षण
मुलाकात में आदिवासी साहित्य के संरक्षण और उसे वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के उपायों पर भी चर्चा की गई। कोल्हान क्षेत्र के आदिवासी साहित्य और आदिवासी विचारकों की भूमिका पर विचार किया गया, ताकि उनका साहित्यिक योगदान और संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित रह सके। झारखंड के समकालीन आदिवासी साहित्य, विशेष रूप से हो भाषा के साहित्यिक योगदान पर भी चर्चा की गई, और उसे एक मजबूत पहचान दिलाने के लिए जरूरी कदमों पर जोर दिया गया।
राजस्थान के आदिवासी बुद्धिजीवियों की भागीदारी
इस परिचर्चा में राजस्थान के आदिवासी बुद्धिजीवी डॉ. गौतम मीणा और डॉ. हीरा मीणा भी शामिल हुए। दोनों ने मीणा समुदाय की सामाजिक संरचना, उनके अधिकारों और वर्तमान सामाजिक स्थितियों पर अपने विचार साझा किए। उनके विचारों से यह साफ हुआ कि भारत के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी समुदायों को समान समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, और इन समस्याओं के समाधान के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है।
आदिवासी समाज के हित में सहयोग और समाधान की आवश्यकता
यह मुलाकात इस निष्कर्ष पर पहुंची कि आदिवासी समाज को एकजुट होकर अपने अधिकारों की रक्षा करनी होगी। इसके लिए न केवल सरकारी नीतियों की आवश्यकता है, बल्कि जमीनी स्तर पर सामुदायिक भागीदारी को भी मजबूत करने की जरूरत है। आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक पहचान को बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनके अधिकारों की रक्षा हो और उनके संघर्षों को सही मंच मिले।
यह चर्चा आदिवासी समाज के अधिकारों, उनकी पहचान और भविष्य की दिशा के लिए एक महत्वपूर्ण पहल के रूप में देखी जा रही है।