Kolhan University में पारंपरिक उत्सव ‘ब्ह पोरोब’ मिलन समारोह धूमधाम से सम्पन्न, जनजातीय संस्कृति की गूंज
Chaibasa news (प्रकाश कुमार गुप्ता): Kolhan University के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग द्वारा पारंपरिक आदिवासी पर्व ब्ह पोरोब को लेकर एक भव्य मिलन समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न संस्थानों के विद्वानों, सांस्कृतिक विशेषज्ञों और विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। समारोह का मुख्य उद्देश्य जनजातीय सांस्कृतिक पहचान, परंपराओं और लोक-मान्यताओं को संरक्षित व प्रचारित करना रहा।
इस विशेष अवसर पर रांची स्थित डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के हो भाषा विभाग से सहायक प्राध्यापक दिलदार पुरती, कोल्हान विश्वविद्यालय के मानवशास्त्र विभाग से डॉ. मीनाक्षी मुण्डा, टाटा कॉलेज चाईबासा से डॉ. बिनीता कच्छप, डॉ. रामदयाल मुण्डा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान से गुंजल इकिर मुण्डा, एवं हो समाज महासभा से श्री नरेश देवगम बतौर मुख्य वक्ता कार्यक्रम में उपस्थित रहे।
समारोह की शुरुआत स्वागत भाषण से हुई, जिसे विभाग के डॉ. बसंत चाकी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने ब्ह पोरोब के उत्पत्ति को लोककथा के माध्यम से बताया, जिससे उपस्थित जनसमूह ने आदिवासी संस्कृति के मूल भाव को गहराई से समझा।
दिलदार पुरती ने अपने वक्तव्य में कहा कि सरहुल शब्द सभी जनजातियों के लिए समान नहीं है। उन्होंने बताया कि यह पर्व विभिन्न जनजातियों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है—जैसे कि हो भाषा में ब्ह, मुण्डारी में बा, संताली में बाहा, खड़िया में जाड़कोर और कुड़ुख में खदी कहा जाता है। इसका मूल उद्देश्य प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना है।
डॉ. मीनाक्षी मुण्डा ने इस पर्व के प्रकृति से जुड़ाव को रेखांकित करते हुए कहा कि इस समय जब पेड़ों पर नई पत्तियाँ और कोपलें आती हैं, तब आदिवासी समाज उन्हें प्रयोग में लाने से पहले प्रकृति की पूजा कर उसकी अनुमति लेते हैं। यह प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाता है।
डॉ. बिनीता कच्छप ने इसे आकाश और धरती के विवाह का प्रतीक बताया, वहीं गुंजल इकिर मुण्डा ने इस पर्व को सामाजिक एकजुटता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का माध्यम बताते हुए इसे और व्यापक रूप में मनाने की आवश्यकता पर बल दिया।
विभाग के प्रभारी विभागाध्यक्ष डॉ. सुनील मुर्मू ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि ब्ह पोरोब आदिवासी जीवनशैली की आत्मा है, जिसे हर जनजातीय समुदाय को अपने पारंपरिक विधि-विधान के अनुरूप मनाना चाहिए ताकि नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों की जानकारी सही रूप में प्राप्त हो।
डॉ. निताई चन्द्र महतो ने इसे आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान बताते हुए कहा कि यह पर्व न केवल प्रकृति के सम्मान का प्रतीक है, बल्कि यह समाज को जोड़ने वाली मजबूत डोर भी है।
इस समारोह के सफल आयोजन हेतु छात्रों की आयोजन समिति का गठन किया गया था, जिसमें गणेश जोंको को अध्यक्ष, शिवम सिजुई को उपाध्यक्ष, मुक्ता बारी को कोषाध्यक्ष, मादे कोड़ः को सह-कोषाध्यक्ष, नरेश जेराई को सचिव और सरिका पुरती व कविता सिंकु को संयुक्त सचिव बनाया गया था।
स्वागत एवं भोजन समिति में अनजान सरदार, मानी देवगम, सुंदरी देवगम, मुनी पुरती, चितरंजन जेराई, जगन्नाथ हेस्सा एवं संगीता पुरती शामिल थे। नृत्य दल का नेतृत्व हो समाज की स्वर्ण पदक विजेता गोनो आल्डा ने किया, जिनके नृत्य ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
इस कार्यक्रम में संताली विभाग के निशोन कुरमाली एवं कुरमाली विभाग के सुभाष चंद्र महतो भी उपस्थित रहे। समारोह का समापन पारंपरिक शैली में ब्ह दुरं ब्ह जदुर के उद्घोष के साथ किया गया, जिसने पूरे वातावरण को सांस्कृतिक उल्लास से भर दिया।
यह मिलन समारोह केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय की जीवंत परंपरा, एकजुटता और पहचान का प्रतीक बन गया, जो भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्वरूप रहेगा।